प्रधानमंत्री के बस्तर दौरे के पूर्व कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर पोस्ट कर निशाना साधा. कांग्रेस महासचिव ने आदिवासियों के मुद्दे को उठाते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला बोला है. जयराम रमेश ने बस्तर में जनसभा से पहले कहा कि, नरेंद्र मोदी को इस बारे में बात करनी चाहिए कि छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदाय के अधिकारों की रक्षा करने में वह विफल क्यों रहे हैं.
उन्होंने कहा, “हमें उम्मीद है कि एक आदिवासी बहुल जिले में प्रधानमंत्री इस पर थोड़ी बात तो कर ही सकते हैं कि वह राज्य में आदिवासी समुदायों के अधिकारों की रक्षा करने में क्यों विफल रहे हैं.”
हसदेव मामला का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा, घने, जैव विविधता से भरपूर हसदेव अरण्य वन, जिसे “राज्य का फेफड़ा” माना जाता है, भाजपा और उनके पसंदीदा मित्र, अडानी एंटरप्राइजेज के कारण ख़तरे में है। जब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी, तो जंगल की रक्षा के लिए केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने इस जंगल में 40 कोयला ब्लॉक रद्द कर दिए थे.
जब भाजपा सत्ता में वापस आई है, तब उन्होंने इस फैसले को पलट दिया है और आदिवासी समूहों और एक्टिविस्ट्स के जबरदस्त विरोध के बावजूद, अडानी के स्वामित्व वाले परसा कोयला ब्लॉक में खनन फिर से शुरू कर दिया है. उन्होंने कहा, प्रधानमंत्री और भाजपा इतनी बेरहमी से छत्तीसगढ़ के आदिवासी समुदायों के जीवन को कैसे खतरे में डाल सकते हैं.
उन्होंने नगरनार स्टील प्लांट को लेकर भी पीएम मोदी से आश्वासन माँगा है. उन्होंने लिखा, डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा शुरू किए गए नगरनार स्टील प्लांट को पिछले साल अक्टूबर में बहुत धूमधाम से जनता को समर्पित किया. बस्तर के लोगों को आशा थी कि 23,800 करोड़ रुपए की लागत से बना यह विशाल प्लांट बस्तर के विकास को गति देगा और स्थानीय युवाओं के लिए हज़ारों अवसर पैदा करेगा.
उन्होंने आरोप लगते हुए आगे लिखा कि तथ्य यह है कि भाजपा सरकार ने अभी तक इस दावे को मान्य करने के लिए ठोस आश्वासन नहीं दिया है. क्या भाजपा कोई सबूत दिखा सकती है कि उसने इस स्टील प्लांट को अपने कॉर्पोरेट मित्रों को बेचने का न कभी इरादा किया था और न ही कभी करेगी?
उन्होंने लिखा, पिछले साल, जब पीएम मोदी ने वन संरक्षण संशोधन अधिनियम पेश किया, तो यह सारी प्रगति उलटी दिशा में हो गई. इससे विशाल क्षेत्रों में वन मंजूरी के लिए स्थानीय समुदायों की सहमति और अन्य वैधानिक आवश्यकताओं के प्रावधान समाप्त हो जाते हैं. इसके पीछे का इरादा बिल्कुल स्पष्ट है – हमारे जंगलों को प्रधानमंत्री के कॉर्पोरेट मित्रों को सौंपना. क्या प्रधानमंत्री कभी जल-जंगल-ज़मीन के नारे पर दिखावा करना बंद करेंगे और आदिवासी कल्याण के लिए सार्थक रूप से अपनी प्रतिबद्धता जताएंगे?.
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