ग्लैडसन डुंगडुंग, लेखक तथा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और झारखंड में रहते हैं. वे आदिवासी परंपरा में घुस रही दहेज़ की प्रथा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखते हैं की
पूर्वजों के द्वारा स्थापित ‘‘परंपराओं’’ को यदि सही संदर्भ में नहीं समझा गया तो यह हमारे आदिवासी समाज के लिए बोझ बन सकते हैं. जिसके लिए समय-समय पर इसपर विचार-विमार्श होना चाहिए. मुंडा एवं खड़िया आदिवासी समुदायों में ‘‘गोनोंग’’ एवं ‘‘सुखमुड़’’ की परंपरा है. जिसके तहत शादी के समय लड़का पक्ष के द्वारा लड़की पक्ष को एक जोड़ी बैल दी जाती है. जब इस परंपरा की शुरुवात हुई थी तब मुंडा एवं खड़िया लोग मूलतः खेती एवं वनोपज पर आश्रित थे. खेती हमारा मूल आधार होने की वजह से सभी परिवारों के पास मवेशी हुआ करते थे. लेकिन अब स्थिति कुछ अलग है, पर परंपरा अब भी जारी है.
बड़े शहर या छोटे टाउन में बसे आदिवासियों के पास खेत नहीं है इसलिए उन्हें बैल के जगह पर पैसे चाहिए. यह परंपरा अब ‘‘दहेज’’ का रूप ले रहा है. अब दो जोड़ी बैल की कीमत मार्केट रेट पर मांगा जा रहा है. यानी परंपरा और पूंजीवाद का गंठजोड़ ‘‘लड़के’’ के परिवार के लिए बोझ बन गया है. इस परंपरा को बरकरार रखने के लिए कई परिवार को कर्ज लेना या जमीन बेचना पड़ रहा है. मैं निरंतर सुझाव दे रहा हूँ कि इस परंपरा को ‘‘नेक-दस्तूर’’ तक सीमित रखना चाहिए न कि परंपरा पर पूंजीवाद को सवार कराकर आर्थिकरूप से कमजोर आदिवासी परिवारों का जीना हराम करना चाहिए. खूंटी जिले की माताओं के साथ ऐसा ही एक विमार्श हुआ.
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