छत्तीसगढ़ में अभी देवताओं का मेला के नाम से जाना जाने वाला पर्व “पेन करसाड” का समय चल रहा है. अपने संस्कृति और प्रकृति की सुंदरता के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ अपने देवी देवताओं की पूजा अर्चना में लीन है. पेन करसाड मेला इन आदिवासियों खासकर गोंड जनजाति के लिए बहुत महत्वापूर्ण माना जाता है.
आदिवासी किसी शास्त्र के आधार पर पूजा-पाठ नहीं करते. वे पुरखों की आत्माओं से संपर्क साधते हैं और प्राकृतिक संकेतों को महत्व देते हैं. प्रकृति की पूजा करने वाले दूसरे राज्यों के आदिवासियों की आस्था भी कमोबेश एक जैसी है.
क्या है आदिवासियों की “पेन व्यवस्था”?
ऐसे समय में जब हर जगह आदिवासियों की परंपराओं व आस्था पर मुख्यधारा के संगठित धर्मों का चौतरफा हमला जारी है, छत्तीसगढ़ में गोंड आदिवासी अलग-अलग इलाकों में पेन करसाड़ मना रहे हैं.
उनकी आस्था के अनुसार पेन, पूर्वजों की आत्माओं का समूह है, जिसमें एक गोत्र के सभी वंशज अपनी-अपनी मृत्यु के बाद जा मिलते हैं. आदिवासियों में स्वर्ग और नर्क की अवधारणा नहीं है. आदिवासी समाज के जिस पहले व्यक्ति से अलग-अलग गोत्र की शुरुआत हुई, उसके वंशज जहां भी हैं, वे एक जगह एकत्र होते हैं और पेन करसाड़ मनाते हैं.
गोत्र से जुड़े जीव की रक्षा का दायित्व
मनुष्यों की संख्या बढ़ने और प्रकृति पर उनका बोझ बढ़ने पर भी प्रकृति का संतुलन बना रहे, इसलिए हर गोत्र के समुदाय को तीन जिम्मेदारियां दी जाती है. उसे एक जानवर, पक्षी और पेड़ जिसकी रक्षा करनी होती है. वह अपने गोत्र से जुड़े जीव की हत्या नहीं कर सकता, न उसका भक्षण कर सकता है. इस तरह हर गोत्र एक जीव, पेड़ और पक्षी की रक्षा करता है, ताकि प्रकृति का संतुलन बना रहे.
इसलिए आदिवासी समुदाय में जीव, पेड़, पक्षी से संबधित गोत्र ही होते हैं. अलग-अलग आदिवासी समुदाय के गोत्र अपनी-अपनी भाषा के अनुसार हैं, लेकिन उसका अर्थ कमोबेश एक है.
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