जब जेएनयू में था, प्रोफेसरों की रिहाइश वाले इमारतों की तरफ एक औरत अपनी पीठ पर शॉल में अपनी बच्ची को कसे हुए कई बार बच्चों को घुमाती मिल जाती थी. बिना शक वह मुझे झारखंड की लगती थी. एक रोज़ मैंने सादरी में उसका परिचय पूछा. अपनी बोली भाषा सुनकर उसके चेहरे पर हल्की खुशी दिखी. वह पलामू से थी, बिरनी कच्छप. पुलिस ने नक्सली बताकर पति को मार दिया तो बच्ची को लेकर काम की तलाश में दिल्ली चली आई थी. यहां मेड का काम करती थी.
“वो केंदू पत्ता का काम करता था. सीधा आदमी था.”
“तो पति को मारने वाले को ऐसे ही जाने दिया? लड़ी नहीं?” मैंने पूछा.
“लड़ती तो मुझे भी मार देते.”
कुछ साल पहले अखबारों में एक ख़बर थी, रोशन होरो नाम का आदिवासी लड़का अपने नगाड़े पर चमड़ा चढ़ाने जा रहा था. रास्ते में पुलिस को देखा तो चमड़े को लेकर कुछ दिन पहले हुई मारपीट की एक घटना याद कर वह भागने लगा. पुलिस ने बिना सोचे उसे गोली मार दी.
एक और घटना, डालटेनगंज के जंगल में बारह लाशें बिछी हुई थीं. उनमें तेरह साल का एक लड़का भी था. सब पर नक्सली होने का आरोप था. मैं एक फैक्ट फाइंडिंग टीम का हिस्सा होकर वहां गया था. एक के बारे में पता चला, लड़का कोयले की खदान में काम करता था. महुआ के मौसम में महुआ चुनने आया था और अब गोली खाकर यहां पड़ा था.
मैं इसी हफ्ते रिलीज हुई फिल्म जोरम देख रहा था और ऐसी दर्जनों घटनाएं दिमाग में घूम रही थीं. मैं फिल्म के किरदार दसरू पर ध्यान केंद्रित करता और मुझे अब तक देखे इसी तरह के कई जीवित, मृत लोग याद आने लगते.
जोरम का आदिवासी मजदूर दसरू बिरनी कच्छप की तरह अपनी बेटी को पीठ पर कसे भागा जा रहा है. वह बेतहाशा भाग रहा है, क्योंकि भागेगा नहीं तो पुलिस उसे मार देगी. उसे भागना ही है. वह जब तक ज़िंदा रहेगा, भागेगा. वह जब तक भागेगा, तब तक ज़िंदा रहेगा. दसरू की यही विडंबना है, क्योंकि उसने बंदूक छोड़ दिया है.
देवाशीष मखीजा की जोरम कई मायनों में एक साहसी फिल्म है. साहसी इसलिए कि आज की तारीख में हिंदी सिनेमा में सब सेफ खेलना चाहते हैं. कहानी में दलित, मुस्लिम, नक्सली आदि का जिक्र आते ही सब हाथ खड़े कर लेते हैं. कोई प्रोड्यूसर नहीं मिलता. अगर अपनी ज़िद में आप फिल्म बना भी लेते हैं तो रिलीज के लिए प्लेटफार्म नहीं मिलता. लेकिन देवाशीष की रीढ़ सखुआ के हीर की तरह है. उन्हें यह कहानी कहनी थी और उन्होंने कही.
दो महीने पहले मामी के वर्ड टू स्क्रीन में मेरी किताब लोहे का बक्सा और बंदूक सेलेक्ट हुई थी. वहीं पहली बार देवाशीष मिले. ग्यारह किताबों के इस चयन में हार्पर कोलिंस से आई उनकी किताब फॉरगेटिंग भी शामिल थी. मैंने मंच से कहा कि झारखंड की जल, जंगल, जमीन की कहानियों को सिनेमा में एक्सप्लोर किया जाना बाकी है. आदिवासी जीवन का आना बाकी है. यह एक अलग वर्ल्ड है, जिसे दर्शकों ने अभी परदे पर ढंग से देखा नहीं है. फिल्मकारों ने ने इस दुनिया को एक्सप्लोर नहीं किया है.
कार्यक्रम के बाद देवाशीष मिले तो बड़ी नम्रता से कहा, “मैंने कुछ कोशिश की है. मेरी एक फिल्म है, जोरम.”
मुझे आश्चर्य हुआ, मैंने जोरम का नाम नहीं सुना था. उन्होंने बताया, फिल्म काफी पहले से बनकर तैयार थी. फेस्टिवल में घूमकर सबका प्यार पा रही थी. लेकिन थियेटरिकल रिलीज नहीं हो पा रही थी.
मैं उस रोज़ से जोरम का इंतज़ार कर रहा था और फाइनली जोरम सामने थी. अपनी मां की हत्या के बाद पुलिस से बचने के लिए भाग रहे दसरू की पीठ पर लटकी बच्ची जोरम. फिल्म शुरू होते ही परदे पर लिखा आया था, झारखंड के लोगों के लिए. यह अपनी जमीन की कहानी थी. लाल मिट्टी की कहानी थी. महुआ और सखुआ पेड़ों से घिरे जंगलों की कहानी थी. जंगलों में पसरे डर की कहानी थी. हरे भरे जंगलों को उजाड़कर खदानों में बदल देने की कहानी थी. मुंबई से भागकर अपने गांव लौटा दसरू अपने इलाके को देखकर हैरत से कहता है, “यहां पहले एक नदी होती थी, कहां गई?”
मामी में जिज्ञासा से भरे एक व्यक्ति मिले और जोवाकीम लिंडा, सिसिलिया जैसे आदिवासी पात्रों के नाम के बारे में कहा, “ये नाम अलग और बेहद इंट्रेस्टिंग साउंड करते हैं.”
मैं सोचने लगा कि ये आदिवासी नाम सुनकर इतने हैरान हैं. पूरे आदिवासी जीवन को जानेंगे तो इनकी हैरानी का क्या होगा?
बहरहाल, जल, जंगल, जमीन की कहानियां इतनी हैं कि ख़त्म न हों.
लेखक- मिथिलेश प्रियदर्शी, जेएनयू
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