(आज उनकी पुण्यतिथि है)
‘मैं मूकदर्शक नहीं रहूंगा, भारत के सत्ताधारियों से असहमति व्यक्त करने और उन पर प्रश्न उठाने की जो भी कीमत मुझे अदा करनी पड़ेगी, उसे अदा करने के लिए मैं तैयार हूं. ’ NIA द्वारा गिरफ्तार किये जाने से कुछ दिन पहले स्टेन स्वामी ने यह बात कही थी. 2 साल गुजर गए जब स्टेन स्वामी के वकील अदालत में मेडिकल ग्राउंड पर जमानत मांगते रह गए उधर उनकी मौत हो गयी. लेकिन जमानत नहीं मिली. स्टेन स्वामी भारत के सबसे वृद्ध व्यक्ति थे जिनके ऊपर UAPA की धारा लगायी गयी थी.
मेरे जैसे पत्रकार जब स्वामी को लेकर रिसर्च करते हैं तो 2 तरह की बातें सामने आती है. पहला एक ऐसा इंसान जिसने अपनी जिंदगी के 50 साल देश के आदिवासियों के लिए संघर्ष करते हुए गुजार दिए. इंटरनेट पर दर्जनों लेख उनके द्वारा स्थापित संस्था बगइचा को लेकर हिंदी और अंग्रेजी में मिल जाएंगे, जिसमें उनके निःस्वार्थ मानवाधिकार की लड़ाई का जिक्र होता है.
व्यवस्था द्वारा सताए गए सैकडों युवक मिल जाते हैं जिन्हें स्वामी की संघर्ष के बदौलत न्याय मिली (न्याय भारत की अदालतों ने ही दिया है), भूमी अधिग्रहण कानून के विरुद्ध संघर्ष दिख जाता है जिसे सरकार को वापस लेना पड़ा था. 1990 की दशक में रांची में स्थापित JOHAR जैसे संगठन दिख जाते हैं, जिसकी बदौलत मानवाधिकार की कई लड़ाई लड़ी गयी। पेशा कानून को लागू करने की मांग दिख जाती है.
वहीं दूसरी तरफ जब NIA द्वारा लगाए गए आरोपों की तरफ देखी जाती है तो फादर स्टेन स्वामी पर IPC की धारा 120(B), 121, 121(A), 124(A) और 34 लगाई गई. साथ ही UAPA की धारा 13, 16, 18, 20, 38 और 39 भी लगाए गए थे. ये सभी धारा उस इंसान के खिलाफ लगाया जाता है जिसे देश की सुरक्षा के लिए खतरा माना जाता है. इन धाराओं में जमानत मिलने की संभावना बेहद कम रहती है.
एनआइए के आरोप पत्र के अनुसार स्टेन स्वामी माओवादियों के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन परसेक्यूटेड प्रीजनर्स सोलिडरिटी कमेटी (पीपीएससी) के कन्वेनर थे. हालांकि यह पहला और अंतिम केस उनके खिलाफ नहीं था, इससे पहले पत्थरगढ़ी आंदोलन के समय झारखंड सरकार ने उनपर देश द्रोह का चार्ज लगाया था. जिसे बाद में झारखंड सरकार द्वारा ही उठा लिया गया (अगर स्वामी इतने खतरनाक होते तो कोई भी सरकार यह कदम नहीं उठाती).
स्टेन स्वामी के कार्य पब्लिक डोमेन में हैं. रांची ही नहीं पूरे झारखंड में लोग उनके कार्यो को दिखा और बता सकते हैं. वहीं पहले पुणे पुलिस और बाद में सेंट्रल एजेंसी 5 जुलाई 2021 उनके निधन के दिन तक अपने आरोपों के समर्थन में जरूरी दस्तावेज नहीं इकट्ठा कर पायी, या स्पीड ट्रायल करवा कर उन्हें दोषी साबित नहीं करवा पायी. मामले पर सुनवाई से अधिक जांच एजेंसी का फोकस जमानत रद्द करवाने और जेल से बाहर नहीं निकलने देने पर रहा.
स्वामी की हिरासत में मौत पर संयुक्त राष्ट्र से लेकर पूरे विश्व भर में सवाल उठाए गए। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची को बचाव मे उतरना पड़ा था. भारत में शरद पवार,कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी समेत 10 विपक्षी नेताओं ने उनकी मौत पर राष्ट्रपति को पत्र लिखा था. राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार रहे यशवंत सिन्हा ने उनकी मौत को “हत्या” बताते हुए लिखा था कि
“हम जानते हैं कि कौन ज़िम्मेदार है इस घटना के लिए.”
इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने फ़ादर स्टैन स्वामी के निधन को एक ‘त्रासदी’ बताया था. RSS से जुड़े रहे और वर्तमान में BJP नेता झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी भी जब उनके स्टेन स्वामी पर केस दर्ज हुआ था तो उनसे मिलने पहुंचे थे.
भले ही फादर स्टेन की मौत और गिरफ्तारी पर दुनिया भर में सवाल उठाए गए। भारत में हिंदी और अंग्रेजी के कुछ मीडिया हाउस ने जगह भी दिया, लेकिन स्वामी अंदर ट्रायल न्यायिक हिरासत में मौत के बाद भी सरकारी रिकॉर्ड में देश के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाले प्रतिबंधित संगठन भाकपा माओवादी के सदस्य ही बताए जाते हैं. हालांकि यह आरोप ही है। जांच एजेंसी एक भी आरोप साबित नहीं कर पायी.
स्वामी भी मरते दम तक निर्दोष ही स्वयं को बताते रहे. भीमा कोरेगांव मामले में जब उनके ऊपर मामले दर्ज हुए थे तब उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था कि न तो वे कभी भीमा कोरेगांव गए और न वहां हुई हिंसा में उनकी कोई सहभागिता है.साथ ही दुनिया भर के कई जिम्मेदार इंसान और रांची में उनके कार्य, उन्हें मानवाधिकार का कार्यकर्ता और हीरो बताता है.
लेकिन जिस देश में जहाँ एक बड़ी आबादी को आरोपी और अपराधी का फर्क नही पता है, गिरफ्तारी और हिरासत का फर्क नहीं पता है. वैसे लोगों से जब आने वाली पीढ़ी 1 लाइन में पूछेगी स्टेन स्वामी कौन थे तो वो देश का नागरिक क्या जवाब देगा?
क्या हुकूमत स्वामी की मौत के 2 साल बाद भी इस सवाल का जवाब तय कर पाने की हालत में है? क्या जांच एजेंसी की जिम्मेदारी तय नहीं होनी चाहिए?
(लेखक सचिन झा शेखर NDTV और जनसत्ता के पत्रकार रहे है, दिग्गज वांमपंथी नेता ए. के. राय पर किताब ‘इंडियन कॉमरेड’ भी लिख चुके हैं.)
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